लेकिन, मन अचानक यह पूछता है कि आखिर लोगों का त्योहारों के प्रति इतनी उदासीनता क्यों है? लोगों की रूचि बदल गई या लोग पुराने त्योहारों के प्रति तटस्थ हो गए। नए नए फेस्टिबल या डे रिझाने लगा या फिर कुछ और । शायद लोगों की व्यस्तता बढ़ गई या महँगाई की मार पड़ गई या फिर करियर की चिंता सताने लगी। जीवन में आगे बढ़ने की चाह में हम इन चीजों को भूलते चले गए । कारण चाहे जो भी हो पर इतना तो सच है कि आज आदमी जीने की चाह में रोज़ मरता चला जा रहा है। हम आपसी प्रेम और सौहार्द बनाने वाले इन अवसरों को खोते जा रहे है, जो हमें इन त्योहारों से मिलाता है ।
वस्तुतः समाज का एक बड़ा तबका तो इन त्योहारों से अछूता है। वह अपने दाल- रोटी की जुगाड़ में इतना थक चूका होता है कि त्योहारों के लिए कोई उर्जा ही शेष नहीं बचती है। जब सारी कसरत रोटी के लिए ही कि जाये तो अन्य चीजों के लिए कोई जगह कहाँ बचती है। एक दूसरा तबका भी है,जो इतना सीमित और केन्द्रित हो चूका है कि इन अवसरों के लिए कोई स्थान रिक्त ही नहीं रखता। जो लोग अपने आप को बीच का मानते है, वो भी दिनोंदिन बढ़ती महँगाई, सिमटते सामाजिक दायरे और बेहतरी की आस में जीवन के रंगों को खोते चले जा रहें है। पर हमें एक ऐसे समाज की दरकार है जिसमें हर चेहरे पर गुलाल की लाली हो।