ज़मीन अधिग्रहण आखि़र किसके लिए?

केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को तीसरी बार लाने की तैयारी में है। पहली बार सरकार ने 31 दिसंबर 2014 को अध्यादेश जारी किया था, लेकिन राज्य सभा से पास न होता देख बजट सत्र के दौरान ऊपरी सदन का सत्रावसान कर अप्रैल में दूसरी बार अध्यादेश लाया गया। मोदी सरकार इस अध्यादेश को संसद में पारित कराने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ रही है। आखि़र क्या वजह है कि चारों तरफ़ से विरोध के बावजूद सरकार भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन की जि़द पर अड़ी है।

अंग्रेज़ी हुकूमत में बने 1894 के भूमि अधिग्रहण क़ानून को 120 वर्षों के बाद 2013 में बदलकर एक नया क़ानून बनाया गया। जिसे लंबे समय के विचार-विमर्श के बाद लागू किया गया था। सुमित्रा महाजन के नेतृत्व में बनी संसदीय समिति ने इस मुद्दे पर 28 सिफ़ारिशें दी थीं, जिनमें से ज़्यादातर स्वीकार कर ली गई थीं। लेकिन अब अचानक नई सरकार को इसमें ख़ामियां नज़र आने लगी हैं। एक ही झटके में एक साल के अंदर सरकार इसके मूल प्रावधानों को बदलना चाहती है जिनकी बीजेपी कभी हिमायती हुआ करती थी।

सरकार का कहना है कि 'विकास' के साथ रोज़गार के अवसर पैदा करने हैं, जिसके लिए ज़मीन ज़रूरी है। अगर सरकार के पास ज़मीन ही नहीं होगी तो नई परियोजनाऐं कैसे लागू होंगी? रोज़गार के नए अवसर कैसे मिलेंगे? तो क्या यह माना जाए कि सरकार के पास ज़मीन नहीं है। विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज़) पर सीएजी की 2014 में प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार सेज़ के नाम पर कुल 625 स्वीकृत परियोजनाओं के अंतर्गत 60,374.76 हेक्टेयर ज़मीन आवंटित की गई है। जिसमें 45,635.63 हेक्टेयर ज़मीन पर 392 (63 प्रतिशत) परियोजनाओं को अधिसूचित किया गया है। इनमें केवल 152 (24 प्रतिशत) परियोजनाऐं ही परिचालित हैं जिसमें 28,488.63 हेक्टेयर ज़मीन का ही उपयोग हो सका है। बाक़ी बची हुई ज़मीन का उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है। सीएजी की इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से रेखांकित किया गया है कि रोज़गार के अवसर मुहैया कराने, निवेश को बढ़ावा देने, और वैष्विक व्यापार में भारत के हिस्से को बढ़ाने जैसे महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पाने में सेज़ विफल रहा है। सार्वजनिक उद्देश्य के नाम पर ली गई ज़़मीन में से 14 प्रतिशत ज़मीन का व्यवसायिक उपयोग हुआ। इससे सबसे ज़्यादा लाभ डेवेलपर्स और रियल स्टेट को हुआ। ओडिशा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में सेज़ के नाम पर आवंटित 90 प्रतिशत से ज़्यादा ज़मीन बेकार पड़ी है। सरकारी लैंड बैंक में लाखों एकड़ ज़मीन पड़ी है, मसलन, महाराष्ट्र में 2 लाख एकड़, मध्य प्रदेश में 30 हज़ार एकड़ आदि। सरकार पहले से ही अधिग्रहित ज़मीन का उपयोग नहीं कर पा रही है, फिर नए अधिग्रहण की क्या ज़रूरत है।

ग़ौरतलब है कि किसी भी सरकारी परियोजना के लिए ज़मीन मालिकों की सहमति और सामाजिक असर के आकलन की ज़रूरत नहीं है। तो यह मान लिया जाए कि निजी परियोजनाओं के लिए सरकार इन प्रावधानों को हटा रही है। ज़मीन के ज़रूरत से ज़्यादा और जबरन अधिग्रहण को रोकने के लिए सहमति प्रावधान का होना आवश्यक है। इस प्रक्रिया से ग्राम सभा सशक्त होती हैं। सामाजिक असर के आकलन से ज़मीन अधिग्रहण का समाज पर पड़नेवाला प्रभाव पता चलता है। देश में ऐसे लाखों लोग हैं जिनके पास ज़मीन नहीं है, पर उनकी आजीविका ज़मीन पर ही निर्भर है। ऐसे लोगों पर होनेवाले प्रभाव का अंदाज़ा सामाजिक असर के आकलन से होता है। इस प्रक्रिया से किसानों और मज़दूरों की पहचान भी सुनिश्चित होती है।

पिछले डेढ़ दशक में रियल स्टेट में भारी इज़ाफ़ा हुआ है। भारत में रियल स्टेट का व्यापार 2012 में 3.4 बिलियन अमरीकी डालर था। वर्ष 2000 - 2001 में भारतीय अर्थव्यवस्था में रियल स्टेट की हिस्सेदारी 14.7 थी जबकि 2011 - 2012 में बढ़कर 19 प्रतिशत हो गई। 2025 के अंत तक निर्माण के क्षेत्र में भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी शक्ति हो जायेगी। वहीं कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबकि 2007 से 2011 के बीच रियल स्टेट और उद्योगों के विकास के कारण 7,90,000 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि घट गई है।

खेती-किसानी के हालात इसके विपरीत हैं। पिछले दस सालों में 90 लाख लोगों ने खेती छोड़ी है। वर्ष 2000 में किसानों की संख्या 12.73 करोड़ थी जो कि 2011 में घटकर 11.87 करोड़ हो गई। वहीं कृषि मज़दूरों की संख्या 2001 में 10.68 करोड़ थी जो कि 2011 में बढ़कर 14.43 करोड़ हो गई। किसान ख़ेती छोड़कर मज़दूरी करने पर मजबूर हैं। किसानों की आत्महत्या भी रोज़मर्रा की कहानी हो गई है। हर दिन लगभग 46 किसान अपनी जान दे रहे हैं। सरकार सिंचित और उपजाऊ ज़मीन का अधिग्रहण न करने का दावा तो कर रही है लेकिन इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर बनने में ऐसी ज़मीन का इस्तेमाल न हो यह कैसे सुनिचित हो पाएगा?

सरकार का मानना है कि इससे किसानों को फ़ायदा होगा, वास्तविक क़ीमत से चार गुणा मुआवज़ा मिलेगा। लेकिन सच्चाई यह है कि बीजेपी शासित राज्यों की सरकारें भी उपजाऊ ज़मीन का मुआवज़ा मात्र दो से ढाई गुणा ही दे रही हैं। असल में ज़मीन किसान के लिए केवल आय का साधन ही नहीं बल्कि उनके जीवन का आधार है। ऐसे में ज़मीन के बदले पैसा देने से क्या उनका जीवन सुचारू रूप से चल पायेगा? इसलिए अधिग्रहण के माध्यम से किसानों की ज़मीन लेना, लोगों के लिए भावनात्मक मुद्दा भी है।

सेज़ के अनुभव से स्पष्ट है कि सरकार ज़मीन तो अधिग्रहित कर लेती है लेकिन इससे न तो रोज़गार बढ़ पाता है और न ही निवेश। ऐसे में, यह सवाल अपनी जगह अभी भी क़ायम है कि सरकार आखि़रकार किसके हित के लिए किसानों से ज़मीन लेना चाह रही है। ज़मीन किसानों के बजाय कॉरपोरेट के हवाले करने की यह कहीं एक कवायद तो नहीं?