राकेश तुझे सलाम ...

पिछले दिनों रिलीज हुई फिल्म "पीपली लाइव" काफी हिट रही. इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मनमोहन सिंह और आडवाणी सरीखे लोग भी इस फिल्म को देखने के लिए समय निकाल लेते हैं. इस फिल्म में ग्रामीण भारत का हू बहू चित्रण किया गया है. साथ ही गाँव और शहर के अंतर को भी बखूबी दर्शाया गया है. लेकिन इस फिल्म के माध्यम से किसानों की आत्महत्या जैसी त्रासद खबर को भी मजाक का विषय बना दिया जाता है.फिर भी पीपली लाइव को कई अर्थों में लाइव कहा जा सकता है.

यूँ तो इस फिल्म में कई ऐसे किरदार है जो वर्तमान भारतीय राजनीतिक और सामाजिक-आर्थिक पहलू को सही सही दर्शाते है. लेकिन फिल्म में स्ट्रींगर की भूमिका अदा करने वाला पात्र राकेश दिल को छू जाता है. फिल्म का केंद्रीय पात्र नत्था बैंक के कर्ज अदायगी के नाम पर अपनी पुस्तैनी ज़मीन गवां बैठता है. इसी बीच एक स्थानीय नेता उसे यह बताता है कि आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार को सरकार एक लाख रूपया दे रही है. बस क्या था .बेबस नत्था आत्महत्या के लिए तैयार हो जाता है. राकेश को आत्महत्या की इस योजना का पता चल जाता है.उसकी यह एक्सक्लूसिव खबर अगले ही दिन एक लोकल पेपर में छप जाती है.यूँ तो किसानों की आत्महत्या अब कोई खबर नहीं रही है. लेकिन नत्था पीपली का रहने वाला है जहाँ होने वाले उप चुनाव में राज्य के मुख्यमंत्री भी एक प्रत्याशी है. अब तो खबर को लाइमलाईट में आनी ही थी. एक अंग्रेजी चैनल की एंकर को सबसे पहले इसकी सूचना राकेश के मार्फत मिलती है. किसानों के नाम पर पहले तो एंकर ने नानुकूर की. लेकिन चुनाव के कारण आत्महत्या की इस खबर की न्यूज़ वैल्यू भांपते हुए चैनल की एंकर पीपली आने को तैयार हो गई. फिर क्या था.देखते ही देखते पीपली में चैनल वालों का जमावड़ा हो गया. नत्था के तथाकथित आत्महत्या की दुखद खबर को टी वी कैमरों ने एक जश्न में तब्दील कर दिया .गाँव में मेला सा लग गया. अदना सा नत्था ख़बरों की सुर्ख़ियों में रहने लगा. बड़े ही बेशर्मी के साथ टेलीविजन कैमरों ने नत्था और उसके परिवार का जीना हराम कर दिया. आत्महत्या के लाइव कवरेज के नाम पर चैनल वालों ने क्या - क्या नहीं किया. देश की सत्तर प्रतिशत आबादी का खुले में टट्टी करने को ब्रेकिंग न्यूज़ बनाने से लेकर नत्था के "पैखाना" का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण तक किया गया. इस पूरे प्रकरण में चैनलों की खबर मदारी के नाच की तरह था.

इस दौरान खास बात यह रही कि इस खबर को उजागर करने वाला राकेश उस अंग्रेजी चैनल की एंकर का पिछलग्गू बना रहता है. उसे वह नत्था से जुड़ी हर सूचना देता रहता है जिसके अनुसार चैनल अपनी स्टोरी प्लांट करता है. राकेश बड़े चैनल में काम करने का सपना संजोए रहता है. पर इसके सपने को उसी एंकर ने बायोडाटा लौटा कर चकनाचूर कर दिया.राकेश आज के वैसे पत्रकारों का प्रतिनिधित्व करता है जिसके लिए पत्रकारिता प्रोफेशन न हो कर पैशन है. जिसमे पत्रकारिये एथिक्स जिन्दा है. तभी तो राकेश पूछता है. नत्था हमारे लिए क्यों जरुरी है? खास कर जब उसी गाँव का दूसरा गरीब बूढ़ा किसान होरी महतो मिट्टी खोदते खोदते उसी मिट्टी में अपनी कब्र भी खोद डालता है.

चैनल वालों ने खूब वाहवाही लुटी. अपना टी आर पी बढाया. लेकिन खबर को उजागर करने वाला और उसकी तह तक जाने वाला राकेश हमेशा हाशिये पर ही रहा. शायद ख़बरों की यह दुनिया उसकी समझ से परे थी. तभी तो ख़बरों की तिजारत में वह फिट नहीं बैठा. जिसे सारा क्रेडिट मिलना चाहिए था, वही गुमनामी में जीने के लिए विवश हो गया. बेवजह जान भी गवां बैठा. एंकर का राकेश को फोन करना और फ़ोन नहीं उठाने पर भी बिना खोज खबर लिए यूँ ही चली जाना मन को विस्मित करता है. शायद अब उसको राकेश की जरुरत नहीं थी. मरने के बाद भी चैनल वालों ने राकेश की सुध तक नहीं ली. सवाल यह भी है कि अगर राकेश जिन्दा भी रहता तो क्या होता? क्या उसे उचित मंच मिलता? वह अपने अरमानों और विचारों को मूर्त रूप दे पाता? शायद नहीं. फिल्म में मीडिया के खेल को देख कर तो यही लगता है.

वैसे इस फिल्म में सरकारी व्यवस्था और नौकरशाही की भी खूब बखिया उघेड़ी गई है. सरकारी योजनाओ की दुर्गति को दर्शाता ''लाल बहादुर " हमारी सरकारी व्यवस्था के मुंह पर एक जोरदार तमाचा है. नेताओं की आपसी राजनीति में पिस रहे किसानों को भी फिल्म में खूब दिखाया गया है. फिल्म में कृषि मंत्री तो पवार साहब की याद दिलाते है। आखिरकार, कैमरे की डर से नत्था चुपचाप भाग कर शहर में मजदूर हो जाता है . उसकी पत्नी सुहागन होते हुए भी विधवा हो जाती है. और तो और आत्महत्या भी सरकारी दांवपेंच में फस जाता है.मुआवजे का एक लाख रुपये तो दूर की कौड़ी है. कुल मिलाकर फिल्म में बाबुओं के बर्चस्व को भी बखूबी दिखाया गया है.

अनुषा रिज़वी ने इस फिल्म में यह कहीं नहीं दिखाया कि सरकारी व्यवस्था में कोई सकारात्मक बदलाव संभव है. अगर ऐसा संभव होता तो शायद आत्महत्या की खबर के बाद कुछ बदलाव जरूर नज़र आता. जब बदलने वाले खुद ही बदल गए तो कुछ भी नहीं बदलेगा मेरे भाई! हमेशा राकेश मरता रहेगा और नत्था भागता...