शरणार्थी नीति के अभाव में गहराता संकट


आज़ादी के बाद से ही नागरिकता क़ानून भारत में एक संवेदनशील मुद्दा रहा है। नागरिकता क़ानून 1955 में अब तक पाँच बार संशो धन हो चुके हैं। इस क़ानून में छठी बार संषोधन करने के उद्देष्य से गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह ने 19 जुलाई 2016 को लोकसभा में नागरिकता (संशोधन) बिल 2016 पेश किया। यह बिल नागरिकता क़ानून 1955 में संशो धन का प्रावधान करता है। इसके अंतर्गत पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश से आए हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और इसाई धर्मों से संबंधित अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता प्राप्त करने का प्रावधान है, चाहे उनके पास ज़रूरी दस्तावेज़ हों या नहीं। इसका लाभ उन लोगों को मिलेगा जिन्होंने बिना पासपोर्ट एवं वीज़ा के भारत में प्रवेश किया या उन दस्तावेज़ों की वैधता अवधि समाप्त हो गई हो। अब तक नागरिकता अधिनियमों के प्रावधानों के तहत इन्हें अवैध प्रवासी माना जाता था, और वह भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन नहीं कर सकते थे। लेकिन नए संशोधन के प्रावधानों के तहत अब ऐसे लोगों को अपवाद की श्रेणी में रखा जायेगा और भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन के पात्र माने जायेंगे।

प्रस्तावित विधेयक के माध्यम से नागरिकता अधिनियम, 1955 की अनुसूची 3 में संशोधन करते हुए नैसर्गिक नागरिकता प्राप्त करने के लिए 11 वर्ष की बजाय 6 वर्ष की समय सीमा तय की गई है। वर्तमान नागरिकता क़ानून के तहत नैसर्गिक नागरिकता के लिए 11 वर्ष तक देश में रहना ज़रूरी होता है। ग़ौरतलब है कि नागरिकता अधिनियम 1955, नागरिकता प्राप्त करने के विभिन्न तरीकों को स्पष्ट करता है जिसमें जन्म, वंष, पंजीकरण, देषीयकरण, और भारत में किसी परिक्षेत्र के समावेष द्वारा नागरिकता मिलने की बात कही गई है। इसके अतिरिक्त यह अधिनियम भारतीय कार्डधारकों एवं भारत मूल के विदेशी  नागरिकों के पंजीकरण और उनके अधिकारों को नियंत्रित करता है। बहरहाल, इस संशोधन अधिनियम को 30 सदस्यों वाली संयुक्त संसदीय समिति को सौंप दिया गया है। भाजपा सांसद श्री सतपाल सिंह इस संसदीय समिति के अध्यक्ष हैं। इस समिति को संसद के इसी शीतकालीन सत्र में रिपोर्ट प्रस्तुत करनी थी पर इसका कार्यकाल और बढ़ा दिया गया है। अब संयुुक्त समिति अपनी रिपोर्ट अगले वर्ष बजट सत्र में प्रस्तुत करेगी।

यह बिल भारत के नागरिकता क़ानून में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर रहा है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। अगर यह बिल क़ानून में तब्दील हो गया तो इन तीन देशों  के प्रवासियों, जिनमें अधिकतर हिंदू हैं, को लाभ मिलने की उम्मीद है। लेकिन आलोचकों का मानना है कि यह बिल विभेदकारी है और पाकिस्तान, बांग्लादेश  और अफ़ग़ानिस्तान के अल्पसंख्यक समुदायों ख़ासकर हिन्दुओं के हितों को ध्यान में रखते हुए लाया गया है। वहीं दूसरी ओर पाकिस्तान के अहमदिया और म्यानमार के रोहिंग्या समुदाय के लोग भी अपने देश  में अल्पसंख्यक हैं और धार्मिक आधार पर भेदभाव व उत्पीड़न के शिकार हैं। भारतीय मूल के श्रीलंका के प्रवासी भी 1983 की हिंसा के बाद से तमिलनाडु में रह रहे हैं। यह बिल ऐसे प्रवासियों को नागरिकता नहीं दे रहा है। श्रीलंका के प्रवासियों में भी ज़्यादातर हिन्दू हैं। अफ़ग़ानिस्तान के भी हजारा समुदाय के लोग धार्मिक उत्पीड़न के शिकार हैं, लेकिन इस बिल में इसकी भी चर्चा नहीं है। यह विधेयक दूसरे ग़ैर क़ानूनी प्रवासी जिसमें मुसलमान, यहूदी और बहाई शामिल हैं, उनके हितों को भी अनदेखा करता है। आलोचकों का मानना है कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 कीे मूल भावना के खि़लाफ़ है। अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत में रह रहे प्रत्येक व्यक्ति जिसमें ग़ैर नागरिक भी शामिल हैं, को विधि के समक्ष समता का अधिकार है। हालाँकि, सरकार स्पष्ट रूप से उचित तर्क नहीं दे पा रही है कि केवल कुछ ही धर्मों के लोगों को, वह भी केवल तीन ही देशों  के, प्रवासियों को भारत की नागरिकता क्यों दे रही है। 

बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के कितने प्रवासी भारत में रह रहे हैं इसका अधिकृत रूप से कोई सरकारी आंकड़ा मौजूद नहीं है। लेकिन मोटे तौर पर अनुमान लगाया गया है कि इन देशों के करीब दो लाख प्रवासी देश के विभिन्न राज्यों जैसे राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, असम, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में रह रहे हैं। इन्में ज़्यादातर हिन्दू और कुछ सिख हैं। जैन, बौद्ध और इसाई समुदाय के लोगों की संख्या कुछ कम है। इन लोगों को इस समस्या से लाभ मिलने की उम्मीद है। एक और आँकड़े के अनुसार भारत में वीज़ा समाप्त होने के बाद रहने वाले विदेशियों की संख्या 2014 तक 28 हज़ार से अधिक थी। 

असम के अनेक संगठनों और राजनैतिक दलों ने जिसमें सत्तारूढ़ दल के सहयोगी असम गण परिषद भी शामिल है, इस विधेयक का विरोध करते हुए कहा कि यह असम समझौते की भावना के खि़लाफ़ है। असम समझौते के अनुसार 24 मार्च 1971 की आधी रात के बाद से असम आने वाले विदेशियों को वापस भेजने का प्रस्ताव है। इन संगठनों का आरोप है कि इस बिल के अधिनियम में तब्दील हो जाने के बाद से असम में जन सांख्यिकीय बदलाव आ सकता है और स्थानीय लोगों की संख्या कम हो जायेगी।

भारत आज़ादी के बाद से ही प्रवासियों की शरण स्थली रहा है और उनकी मेज़बानी करता रहा है। विभाजन के बाद भारत व पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर लोगों का पलायन हुआ। पाकिस्तान, बांग्लादेष, श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों में की घेरलू अस्थिरता के कारण आज भी लोगों का भारत में आना जारी है। फिर भी प्रवासियों के लिए कोई केंद्रीय क़ानून नहीं है। उनके अधिकारों की रक्षा और चुनौती से निपटने के लिए कोई विशेष क़ानूनी व्यवस्था नहीं बनाई है। भारत की सरकार प्रवासियों के प्रति राजनीतिक और प्रशानिक निर्णय के आधार पर कार्य करती है, न कि क़ानूनी व्यवस्था के अनुरूप। हालाँकि किसी भी संहिताबद्ध क़ानून के अभाव में संविधान के तीसरे भाग में वर्णित मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 20 से 28 ग़ैर-नागरिकों पर भी लागू होते हैं। वहीं कुछ ऐसे भी मौलिक अधिकार हैं जो ग़ैर-नागरिकों पर लागू नहीं होते जैसे अनुच्छेद 16 (लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता), अनुच्छेद 19 (स्वतंत्रता का अधिकार), अनुच्छेद 29 (अल्पसंख्यकों की संस्कृति व भाषा संबंधी अधिकार), अनुच्छेद 30 (अल्पसंख्यकों को शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अधिकार)।

भारतीय न्यायपालिका एक मार्ग दर्शक  व प्रहरी के रूप में कार्य करती है जो क़ानून के नियम को संरक्षित करती है। उच्चतम न्यायालय में वर्ष 1996 में अपने ऐतिहासिक फ़ैसले (एनएचआरसी बनाम अरूणाचल प्रदेष) में व्यवस्था दी थी कि भारत में रह रहे सभी लोगों, जिसमें ग़ैर-नागरिक प्रवासी भी शामिल हैं, को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त है और राज्य उनके इन अधिकारों की रक्षा करने को बाध्य है।

भारत ने संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी सम्मेलन 1951 और उसके 1967 के प्रोटोकोल पर हस्ताक्षर नहीं किया है। वर्तमान में दुनिया के 193 में से 145 देशों  ने इस सम्मेलन को स्वीकार किया है जो दुनिया की सरकारों को शरणार्थियों की रक्षा के क़ानून को स्वीकारने को बाध्य करता है। इसके साथ ही भारत ने 1954 की राज्यविहीनता के संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन और 1961 में राज्यविहीनता में कमी लाने के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंषन की पुष्टि नहीं की है। हालाँकि भारत ने 1948 के मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकार किया है जिसके अनुच्छेद 14 के तहत प्रत्येक व्यक्ति को उत्पीड़न से बचने के लिए दूसरे देषों में शरण लेने का अधिकार है। भारत कथित रूप से अवापसी नियम को भी मानता है जिसके तहत कोई भी देश किसी भी शरणार्थी को अपने मुल्क जाने के लिए उसकी इच्छा के विपरीत मजबूर नहीं कर सकता, विशेषकर तब जब उसके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होने के स्पष्ट कारण मौजूद हो।

भारत में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पटल पर शरणार्थी नीति के अभाव और एकरूपता में कमी को ख़त्म करने के महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्तमान लोकसभा में शरणार्थियों से संबंधित तीन प्राइवेट बिल पेश  किए गए हैं। कांग्रेस पार्टी के श्री शषि थरूर, बीजू जनता दल के श्री रविन्द्र कुमार जेना और भाजपा सांसद श्री वरुण गांधी ने प्राइवेट मेंबर बिल प्रस्तुत किए हैं। संयोग से यह तीनों बिल 18 दिसंबर 2015 को पेश किए गए और फ़िलहाल लोकसभा में लंबित हैं। 

पूरी दुनिया में शरणार्थी संकट गहराता जा रहा है। खासकर जब युद्ध की विभीषिका, युद्धोन्माद और जातीय संघर्ष चरम पर हो। यूएनएचसीआर के मुताबिक़ दुनिया में लगभग 6.5 करोड़ लोग अपने घरों से बाहर हो चुके हैं। इसमें 2.1 करोड़ लोग शरणार्थी हैं और आधे से ज़्यादा लोग 18 वर्ष से कम के हैं। हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जहाँ हर रोज़ लगभग 34,000 लोग उत्पीड़न और संघर्ष से बचने के लिए अपने घरों से पलायित होने को मजबूर हैं। पूरी दुनिया के शरणार्थियों में 54 प्रतिषत लोग सोमालिया, अफ़ग़ानिस्तान और सीरिया के हैं। शरणार्थी के लिए संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) के अनुसार वर्ष 2015 के अंत तक भारत में 2 लाख से अधिक शरणार्थी थे जिसमें 1 लाख 75 हज़ार से अधिक तिब्बत और श्रीलंका के शरणार्थी हैं।

पूरी दुनिया में जब शरणार्थी संकट बढ़ रहा है भारत उससे अछूता नहीं रह सकता। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिदृष्य बदलते जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय संबंध के मानक मसलन भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक समीकरण बदल रहे हैं। जातीय संघर्ष और युद्धोन्माद इस संकट को और गहरा कर रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में हम बिना किसी समग्र और समावेशी क़ानून के नहीं रह सकते हैं। राज्यविहीन और बेघर निरीह लोगों का भविष्य राजनीतिक इच्छा पर नहीं छोड़ा जा सकता। जेएनयू के अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान के प्रोफ़ेसर महेंद्रा लामा ने पैरवी द्वारा आयोजित एक परिचर्चा में कहा था कि स्पष्टवादी और व्यापक क़ानूनी व्यवस्था के अभाव ने शरणार्थी के मुद्दे व उनके प्रबंधन को और अधिक कमज़ोर कर दिया है। हमने इरादतन कोई स्पष्ट नीति नहीं अपनाई है, जिससे समय - समय पर राजनीतिक लाभ मिलता रहे। हमें ऐसी नीति की ज़रूरत है जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप हो, साथ ही बराबरी के आधार पर भेद-भाव रहित हो। 
                                                                                         (5 जुलाई  2017 को खरीबात.कॉम  में प्रकाशित  )


ग़ैर.बराबरी का अंत  बने चुनावी मुद्दा


देश के पाँच राज्यों  
में चुनाव होने वाले हैं। चुनाव प्रचार ज़ोर.शोर से जारी हैं। तरह.तरह की घोषणाएं हो रही हैं। कोई मुफ़्त में लैपटाॅप बांटने का वादा कर रहा है तो कोई फ्री में वाई फाई देने का वादा कर रहा है। कोई पाँच रुपये में भोजन दे रहा है तो कहीं किसानों की कर्ज़ माफ़ी हो रही है। मतदाताओं को खासकर ग़रीब और मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। लेकिन किसी भी राजनैतिक दल के एजेंडे में ग़ैर बराबरी शामिल नहीं है।ग़रीबी उन्मूलन की बात तो कभी कभी सुनाई देती है पर ग़ैर बराबरी के अंत का नारा कोई भी राजनैतिक दल नहीं लगाता।

जाॅहन्सबर्ग स्थित न्यू वल्र्ड वेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के दूसरे सबसे ज़्यादा ग़ैर बराबरी वाला देश है। भारत के एक प्रतिशत धनी लोगों के पास देश का 53 प्रतिशत संपत्ति है वहीं दूसरी ओर देश की आधी आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का महज़ चार प्रतिशत ही है। एक तरफ़ कुछ लोगों के पाास अकूत संपत्ति है वहीं ज़्यादातर लोग अभावग्रस्त हैं। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2000 में देश के एक प्रतिशत धनी देशों के पास लगभग 37 प्रतिशत संपत्ति थी। तेज़ी से बढ़ती असमानता चिंता का विषय है। इसे ख़त्म किए बिना समता मूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकती। ग़रीबी ख़त्म नहीं हो सकती। बढ़ती असमानता सामाजिक तानेबाने को कमज़ोर कर देती है। यह न सिर्फ़ हिंसा प्रतिहिंसा को जन्म देती है बल्कि सांप्रदायिकता विभाजनकारी एजेंडा और राष्ट्रवाद के ज़हर को पैदा करता है।

आज ग़ैर बराबरी ने एक जटिल समस्या का रूप धारण कर लिया है। यह आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन की समस्या से भी ज़्यादा ख़तरनाक है, पर किसी भी राजनैतिक दल का चुनावी मुद्दा नहीं है और शायद संभव भी नहीं है। धनकुबेरों के सहारे ही राजनेताओं की चांदी है। एडीआर की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक देश के राजनैतिक दलों को 2004-5 से 2014-15 के बीच 69 प्रतिशत चंदे अज्ञात स्रोत से मिले है। इसमें कोई भी राजनैतिक दल पीछे नहीं है। समाजवादी पार्टी को इस दौरान 93 प्रतिशत चंदे अज्ञात स्रोत से मिले हैं वहीं कांग्रेस पार्टी को 83 प्रतिशत चंदा अज्ञात स्रोत से मिला है। भाजपा को इस दौरान 65 प्रतिशत चंदा अज्ञात स्रोत से मिला। राजनैतिक दलों और पूंजीपतियों का सांठगांठ ऐसे किसी भी प्रयास से सरकार को रोकती है जिससे ग़ैर बराबरी कम हो। ग़ैर बराबरी कोई स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है बल्कि नीतिगत दोष और सरकारी तंत्र की विफलता का परिणाम है।