चैती की मौत से उपजे कई अनसुलझे सवाल

चैती देवी की मौत ने हमारे सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था के समक्ष न सिर्फ़ कई सवाल खड़े किए हैं बल्कि सरकारी दावों की पोल भी खोल कर रख दी है। तीन बच्चों की माँ चैती देवी (35) की मौत संदीग्ध परिस्थितियों में बिहार के वैशाली जि़ला के निकट पुरखोली पंचायत के समसपुरा गाँव में 19 जनवरी को हो गई थी। यह ख़बर 21 जनवरी को स्थानीय मीडिया के माध्यम में सामने आई।

चैती समसपुरा में अपने मौसेरे भाई देवलाल माँझी के घर रहती थी। देवलाल और उसकी पत्नी रेखा देवी तीन चार दिनों के लिए घर से बाहर गए हुए थे। घर में खाने पीने का कोई समान नहीं था। देवलाल का कहना है कि वह पड़ोस के शम्भू मांझी को चैती की देख भाल रखने के लिए कह कर गए थे। चैती पिछले कुछ दिनों से बीमार थी। गाँव वालों ने बताया कि उसे दमा की बीमारी थी। ठंड का मौसम भी था और इस दौरान घर में खाने पीने का कुछ सामान भी नहीं था। बीमारी की हालत में अकेले बिना भोजन के रहना शायद चैती के लिए मौत का सबब बन गया। लोगों से बातचीत के दौरान विरोधाभाषी तथ्य सामने आए। 

चैती के बच्चे  रेखा देवी के साथ  
शम्भू मांझी ने बताया कि उसने चैती और उसके साथ रह रहे दोनों बच्चों को तीनों दिन खाना खिलाया जबकि चैती के सगे भाई बोधी मांझी ने बताया कि वह शम्भू को खाना बनाने के लिए आवश्यक सामान देकर गया था। वहीं गाँव के पत्थल मांझी ने बताया कि सोमवार रात जब वह चैती को देखने गया तो वह घर में बेहोश पड़ी थी और उसके दोनों बच्चे रो रहे थे। इस ठंड के मौसम में उनके पास ओढ़ने के लिए कंबल तक नहीं था। वह घर के फटे पुराने कपड़े ओढ़ी हई  थी। पत्थल मांझी के अनुसार उसने दोनों बच्चों को खाने के लिए पानी में भीगा हुआ चूड़ा दिया। लेकिन चैती की हालत इस हद तक ख़राब थी कि वह आँख भी नहीं खोल पा रही थी। इन विरोधाभाषी बयानों  से प्रतीत होता है कि चैती को खाने के लिए ठीक से कुछ नहीं मिल सका। बीते तीन दिनों तक उसने क्या खाया यह भी स्पष्ट नहीं है। बीमारी और ठंड का प्रभाव भी खाली पेट ज़्यादा दिखता है। लिहाज़ा दयनीय हालात में रह रही अभावग्रहस्त चैती की मौत हो गई।

सामाजिक आर्थिक विषमता को झेल रही चैती के साथ भेदभाव मरने के बाद भी कम नहीं हुआ। चैती की मौत की ख़बर स्थानीय प्रखंड प्रमुख पार्वती देवी की मौत की वजह से दब गई। गाँव के लोग पार्वती देवी के अंतिम संस्कार में  शामिल होने चले गए थे। चैती का शव घर में ही पड़ा रह गया। बाद में मामला प्रकाश में आया। चैती का मौसेरा भाई देव मांझी को गाँव आने में दो दिन लग गए।

चैती की शादी विदुपुर थाना के बरांटी गाँव में जगेश उर्फ़ धरफ़री मांझी से हुई थी। उसका पति विक्षिप्त था। चैती अपने दोनों बेटों मंजय मांझी (12) और संजय मांझी (4) तथा बेटी प्रीति कुमारी (2) के साथ अपने मैके परमानन्दपुर टोला में अपने माता पिता के साथ रहने लगी। इस दौरान उसका पति भी घर छोड़कर चला गया। अपने माता पिता के मरने के बाद चैती मैके छोड़कर पास के ही समसपुरा गाँव में अपने मौसा हीरा मांझी के घर रहने लगी। हीरा मांझी के मरने के बाद चैती को देखने वाला उसका मौसेरा भाई देवलाल मांझी ही बचा। वह भी चैती की मृत्यु से तीन दिन पहले बाहर चला गया था। पारिवारिक रूप से चैती बिल्कुल अलग थलग पड़ गई थी। उसका बड़ा बेटा मंजय झारखंडमें मज़दूरी करता है। चैती के इस पारिवारिक पृष्ठभूमि से स्पष्ट हो रहा है कि उसे अपने बच्चों की परवरिश का बोझ उठाना भी काफ़ी मुश्किल पड़ रहा था। उसके अपने बदलते रहे और ठिकाना भी बदलता रहा। बहरहाल वह चार .पाँच वर्षों से पिता के मरने और पति के छोड़ने के बाद समसपुुरा गाँव में ही रह रही थी।

चैती का घर जहाँ वह आखिरी साँस ली थी 
चैती की मौत के बारे में पूछने पर गाँव की राधा देवी कहती हैं कि ठीक से भरपेट भोजन उसे नहीं मिलता थाजिसके कारण वह मर गई। सरकारी राहत के नाम पर जि़ला प्रशासन से अभी तक मात्र 6 हज़ार रुपये मिले हैं जिसमें कबीर अंत्येष्ठी योजना के तहत 3 हज़ार रुपये शामिल हैं। चैती के बच्चों का भविष्य अंधकार में लग रहा है। हालाँकि चैती पिछले कुछ वर्षों से समसपुर में रह रही थी। वह किसी भी सरकारी योजना की लाभार्थी नहीं बन पाई। उसके नाम से राशनकार्ड नहीं था। गाँव में आंगनवाड़ी केन्द्र होने के बावजूद चैती के दोनों बच्चों को पोषाहार नहीं मिल पाता था। गाँव के लोगों ने बलाया कि आंगनवाड़ी केन्द्र में बच्चों का पोषाहार मज़ाक बन गया है। अतिकुपोषित बच्चों को जहाँ 4 किलो चावल और 2 दाल मिलना चाहिए, उसका आधा भी ठीक से नहीं मिल पाता है। गाँव में एक उत्क्रमित मध्य विद्यालय हैं जहाँ इस गाँव के 160 बच्चों का नामांकन है, पर टोले से 15 - 20 बच्चे ही जा पाते हैं।

उत्क्रमित मध्य विद्यालय, समसपुरा में अवस्थित आंगनवाड़ी केन्द्र ;केन्द्र संख्या - 180द्ध का अवलोकन करने पर पाया गया कि दिन के एक बजे उस केन्द्र पर सिर्फ 18 बच्चे थे और मानक के विपरीत पानी वाला खिचड़ी पक रही थी। मौके पर उपस्थित लाभार्थी महिलाओं ने बताया कि उनके बच्चों को पोशाक की राशि नहीं मिलती है, पोषाहार कभी-कभी मिलता है तथा गर्भवती व धात्री माताओं को मिलने वाला टेक होम राशन भी समय पर व नियमित नहीं मिलता है। सेविका व सहायिका ने बताया कि बाल विकास परियोजना पदाधिकारी कार्यालय से समय पर राशि का आबंटन नहीं होता हैंै। यह भी देखा गया कि उस दिन उत्क्रमित मध्य विद्यालय, समसपुरा में भी मध्यान्ह भोजन नहीं बना था। स्थानीय अविभावक व बच्चों ने कहा कि यहाॅ कभी-कभी मध्यान्ह भोजन मिलता है। मुसहरी तथा मल्लाह टोला  के बच्चे पढ़ने भी नहीं आता हैं। फिर भी उसके नाम का मध्यान्ह भोजन बंट जाता है।
चैती की मौत की ख़बर स्थानीय मीडिया में आने के बाद, प्रशासन अपनी जि़म्मेदारी से बचने का प्रयास करने लगी है। स्थानीय मुखिया कृष्ण मोहन महतो ने बताया कि चैती इस गाँव में कुछ दिनों से ही रह रही थी। लेकिन मौके पर मौजूद इस गाँव की महिला ने इसका खंडन करते हुए बताया कि चैती चार. पाँच वर्षों से यहीं रह रही थी। वहीं प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी भोलागिरी ने बताया कि 2011 की जनगणना के अनुसार चैती का घर बरांटी में है जिसके कारण इसके नाम से राशन कार्ड इस गाँव में नहीं बन सका। चैती के मौसेरा भाई देवलाल ने भी इसका खंडन करते हुए बताया कि वह चार-पाँच साल से यहीं रह रही थी। फिर भी इसका नाम यहाँ के राशन कार्ड में नहीं डाला गया। हालाँकि चैती की माँ रतिया देवी के नाम से राशन कार्ड है। पूरा मामला ष्गोलपोस्ट शिफ़्टष् करने जैसा लग रहा था। गाँव के लोग यह कह रहे थे कि वह समसपुरा में ही रहती थी, जबकि स्थानीय प्रशासन का कहना है कि वह यहाँ की नहीं थी। यहाँ रहती नहीं थीए इसलिए मरने के बाद की जि़म्मेदारी हमारी नहीं है।

इस पूरे प्रकरण में एक दूसरा दृष्य भी था, जहाँ अचानक कुछ महिलाएं आती हैं और चैती के परिजन होने का दावा करती हैं। उन महिलाओं का कहना था कि चैती अपने ससुराल में रहती थी और यहाँ कुछ दिन पहले ही आई थी। यह महिलाएं अपने आपको चैती की जेठानी बता रही थी। गाँव में पूछताछ करने पर पता चला कि अकेली पड़ी चैती के मरने के बाद दावेदारी शायद सरकारी सहायता के लाभ पाने का प्रयास है।

वृद्ध  और बीमार सुनैना  देवी 
कहानी चैती पर ही ख़त्म नहीं होती है। इस टोले में कई और चैती अपना जीवन मौत के इंतज़ार में जी रही हैं। गाँव के अधिकांश लोगों ने राशन कार्ड में नाम न होने, और सही समय पर राशन नहीं मिलने का आरोप लगाया। सुनैना देवी (60) पति तपेष्वर मांझी, पिछले तीन साल से बीमार है। एक साल से पैसे के अभाव में उसका कोई इलाज नहीं हो पाया है। तपेषवर मांझी ने बताया कि एक साल पहले सरकारी अस्पताल में इलाज के लिए गए थे। उसके बाद से दुबारा नहीं गए। सुनैना अस्पताल भी नहीं जाना चाहती है। उनका कहना है कि सरकारी अस्पताल में भी दवा बाहर से लानी होती है, जिसका पैसा इनके पास नहीं है। बिना पैसे के इलाज सरकारी अस्पताल में भी संभव नहीं है। फिर अस्पताल के बेड पर मरने से अच्छा है कि घर में सबके सामने मरना। सुनैना का समर्थन गाँव के अधिकतर लोगों ने किया। अस्पताल में डाक्टर नहीं मिलते, बिना पैसे के इलाज नहीं होता, उल्टे आने जाने में खर्च हो जाता है।

इस गाँव में मंक्षरिया देवी, नथुनी मांझी, लच्छु मांझी, जैसे कई लोग हैं जिनका अब अपना कोई नहीं है। शरीर में इतना सामर्थ नहीं है कि मज़दूरी कर सके और उन्हें हर महीने राशन नहीं मिलता जिससे कि रोज़ भरपेट भोजन मिल सके। ज़्यादातर लोगों का कहना था कि सार्वजनिक जन वितरण प्रणाली में भारी गड़बड़ी है। लोगों को हर महीने राशन नहीं मिलता है। मंक्षरिया देवी कहती हैं कि हम लोग पढ़े लिखे नहीं हैं। डीलर एक महीने का राशन देता है और दो तीन महीने तक नहीं देता। कभी कभी बिना राशन दिए भी कार्ड में लिख देता है। लोगों का राशन कार्ड भी डीलर ही रख लेता है। देवलाल मांझी का कार्ड भी गाँव के डीलर जगन्नाथ के पास ही रखा था। कई लोगों का नाम  कार्ड में नहीं हैं जिससे लोगों को राशन नहीं मिल पा रहा है। पंचायत के मुखिया कृष्ण मोहन महतो ने बताया कि नई सामाजिक, आर्थिक व जागिगत जनगणना के आधार पर लाभार्थि परिवारों की सूची बनाई गई थी जिसमें पंचायत की कोई भूमिका नहीं थी। कुछ लोगों का नाम इसमें छूट गया जिसे जोड़ने के लिए ब्लाॅक में सूचित कर दिया गया है। इसी टोले के करण मांझी ने कहा कि उनके पिता सरयू  मांझी की मौत दस साल पहले हो गई थी। उनके नाम से राशन मिलना बंद हो गया था। इस महीने अचानक उनके पिता के नाम से भी तेल का कूपन मिला। करण का आरोप है कि दस साल तक डीलर ही स्वयं उनके पिता के नाम का राशन और तेल लेता रहा होगा। अब चैती की मौत के बाद डीलरों की जाँच  हुई तो सरयू  मांझी के नाम का कूपन भी घर भेज दिया गया।
हालात इतने बदतर हैं कि गाँव में ऐसे भी लोग मिले जो यह कह रहे थे कि पैसे के अभाव में सरकारी राशन भी नहीं ख़रीद पाते। उनके पास इतना भी पैसा नहीं कि राशन की दुकान से चावल गेंहू ख़रीद सकें। शम्भू मांझी बताते हैं कि मनरेगा का काम गाँव में बंद है, जिससे नियमित मज़दूरी नहीं मिल पा रही है। लोग खेतों में मज़दूरी कर जी रहे थे । इलाक़े में सूखे की स्थिति से खेत में मज़दूरी भी नहीं हो सकी। ग़ौरतलब है कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम 2013 के आलोक में पात्र व्यक्तियों को 2 रुपये प्रति किलो की दर से 2 किले गेंहू और 3 रुपये प्रति किलो की दर से 3 किलो चावल दिया जाता है।

इन भुखे परिवारों को अनाज के उपलब्धता की गारंटी तो नहीं मिल पाया लेकिन अधिकतम घरों में प्रकल्प योजना अंतर्गत शौचालय का अर्द्धनिर्मित ढाॅचा अवश्य दिखा। लोगों ने बताया तथा दिखा भी कि एक भी शौचालय उपयोग के लायक नहीं बना। एक अदद चापाकल वह भी उस दिन काम नहीं कर रहा था । स्थानीय विद्यालय के प्रधान शिक्षक श्री नागेन्द्र पंडित नें कहा कि टोले के लोग पानी के लिए विद्यालय परिसर में लगे चापाकल का उपयोग करते है।  तमाम दावों और प्रयासों के बावजूद गाँव में शौचालय का अभाव स्वच्छ भारत मिशन की असफ़लता की कहानी बयां करती है।

आज जिस प्रकार चैती देवी का बड़ा पुत्र बाल मजदूर बनने और बचपन बेचने को विवश है तथा अन्य दोनों बच्चों रंजय तथा प्रीती बिना माॅ-बाप का अनाथ जीवन जीने को मजबुर है। यही हाल है पुरे टोले का। इस भयंकर ठंढ़ में भी इन परिवारों को समुचित गर्म कपड़े और पर्याप्त अनाज भी मयस्सर नहीं  हो सका । जाॅच टीम नें पाया कि चैती देवी की मौत सामाजिक राजनीतिक विफलता तथा सरकारी उदासीनता का प्रतीक है। कुल मिलाकर गाँव की ज़मीनी हालत और सरकारी समावेशी विकास के दावे एक दूसरे को झुठलाते प्रतीत हो रहे हैं। इससे यह भी परिलक्षित हो रहा है कि आज भी अंतिम पायदान तक आते-आते विकास की गति शिथील पड़ जा रही है।

स्थानीय प्रशासन चैती को ‘बाहरी’ मान रही है, ताकि जि़म्मेदारी से बच सके। चैती का क्या क़सूर था? मूसहर समुदाय के अधिकांश लोग अपने गाँव से रोज़गार की तलाश में पलायन कर जाते हैं। चैती भी अपनी परिस्थितियों के कारण अपनी ससुराल से मैके, मैके से माॅसी के यहाँ आकर बस गई। पिछले चार .पाँच सालों में लोकसभा, विधानसभा, व पंचायत चुनाव हुए, फिर भी चैती समसपुरा की नागरिक न हो सकी। यहाँ के मतदाता सूचि में इसका नाम शामिल नहीं हो सका और अंततः सरकारी योजना की लाभार्थी नहीं हो सकी। सरकारी योजनाओं में अनियमितता मसलन - जनवितरण प्रणाली, आंगनवाड़ी केन्द्र, व मध्यान भोजन में गड़बड़ी से स्थानीय स्तर पर लोग भोजन के अधिकार से वंचित रह जाते हैं। वहीं दूसरी ओर विभेदकारी विकास की प्रक्रिया गाँव में इतनी धीमी चाल से चलती है कि लोग मूलभूत सुविधओं से भी वंचित हो जाते हैं।

(यह रिपोर्ट समसपुरा गाँव के लगभग 30 - 35 मूसहर समुदाय के लोगो के अतिरिक्त ग्राम प्रधान, प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी, आंगनबाड़ी सेविकाओं, गाँव के स्कुल के शिक्षको, विद्यार्थियों और अन्य स्थानीय लोगों से बातचीत पर आधारित है। चैती की मौत के बाद पैरवी ने स्थानीय सामाजिक संगठनों, के साथ गाँव जाकर हालात जानने का प्रयास किया था जिसमे पैरवी, नई दिल्ली के दीनबन्धु वत्स के साथ जवाहर ज्योति बाल विकास केन्द्र, समस्तीपुर के सुरेन्द्र कुमार, बिहार लोक अधिकार मंच, समस्तीपुर की सोनाली कुमारी, समाजवादी महिला सभा, समस्तीपुर की अंजु कुमारी, अखंड एकता, समस्तीपुर के राजीव गौतम व औलिया अध्यात्मिक अनुसंधान केन्द्र, वैशाली के रामकृृष्ण समसपुरा शामिल थे। )

(14 फरवरी 2016 को   बिहार -झारखण्ड  के श्वेत प्रत्र  अख़बार में पकाशित )