ग़ैर.बराबरी का अंत  बने चुनावी मुद्दा


देश के पाँच राज्यों  
में चुनाव होने वाले हैं। चुनाव प्रचार ज़ोर.शोर से जारी हैं। तरह.तरह की घोषणाएं हो रही हैं। कोई मुफ़्त में लैपटाॅप बांटने का वादा कर रहा है तो कोई फ्री में वाई फाई देने का वादा कर रहा है। कोई पाँच रुपये में भोजन दे रहा है तो कहीं किसानों की कर्ज़ माफ़ी हो रही है। मतदाताओं को खासकर ग़रीब और मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने का हर संभव प्रयास किया जा रहा है। लेकिन किसी भी राजनैतिक दल के एजेंडे में ग़ैर बराबरी शामिल नहीं है।ग़रीबी उन्मूलन की बात तो कभी कभी सुनाई देती है पर ग़ैर बराबरी के अंत का नारा कोई भी राजनैतिक दल नहीं लगाता।

जाॅहन्सबर्ग स्थित न्यू वल्र्ड वेल्थ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत दुनिया के दूसरे सबसे ज़्यादा ग़ैर बराबरी वाला देश है। भारत के एक प्रतिशत धनी लोगों के पास देश का 53 प्रतिशत संपत्ति है वहीं दूसरी ओर देश की आधी आबादी के पास कुल राष्ट्रीय संपत्ति का महज़ चार प्रतिशत ही है। एक तरफ़ कुछ लोगों के पाास अकूत संपत्ति है वहीं ज़्यादातर लोग अभावग्रस्त हैं। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2000 में देश के एक प्रतिशत धनी देशों के पास लगभग 37 प्रतिशत संपत्ति थी। तेज़ी से बढ़ती असमानता चिंता का विषय है। इसे ख़त्म किए बिना समता मूलक समाज की स्थापना नहीं हो सकती। ग़रीबी ख़त्म नहीं हो सकती। बढ़ती असमानता सामाजिक तानेबाने को कमज़ोर कर देती है। यह न सिर्फ़ हिंसा प्रतिहिंसा को जन्म देती है बल्कि सांप्रदायिकता विभाजनकारी एजेंडा और राष्ट्रवाद के ज़हर को पैदा करता है।

आज ग़ैर बराबरी ने एक जटिल समस्या का रूप धारण कर लिया है। यह आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन की समस्या से भी ज़्यादा ख़तरनाक है, पर किसी भी राजनैतिक दल का चुनावी मुद्दा नहीं है और शायद संभव भी नहीं है। धनकुबेरों के सहारे ही राजनेताओं की चांदी है। एडीआर की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक देश के राजनैतिक दलों को 2004-5 से 2014-15 के बीच 69 प्रतिशत चंदे अज्ञात स्रोत से मिले है। इसमें कोई भी राजनैतिक दल पीछे नहीं है। समाजवादी पार्टी को इस दौरान 93 प्रतिशत चंदे अज्ञात स्रोत से मिले हैं वहीं कांग्रेस पार्टी को 83 प्रतिशत चंदा अज्ञात स्रोत से मिला है। भाजपा को इस दौरान 65 प्रतिशत चंदा अज्ञात स्रोत से मिला। राजनैतिक दलों और पूंजीपतियों का सांठगांठ ऐसे किसी भी प्रयास से सरकार को रोकती है जिससे ग़ैर बराबरी कम हो। ग़ैर बराबरी कोई स्वाभाविक प्रक्रिया नहीं है बल्कि नीतिगत दोष और सरकारी तंत्र की विफलता का परिणाम है।