चुनावी बयार में खेत-खलिहान



चुनावी बयार पूरे देश में पूरे जोर-शोर से बह रही है। राजनीतिक दल जनता को लुभाने की हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं। रोज नए दावों और वायदों से हम रूबरू हो रहे हैं। इस प्रयास में सबसे महत्वपूर्ण है घोषणापत्र जिसके माध्यम से राजनीतिक दल अपनी नीतियों और कार्यक्रमों की घोषणा करते हैं। १६वीं लोकसभा के लिए चुनाव सात अप्रैल से शुरू हो चुका है। सत्ता के सबसे प्रबल दावेदार भाजपा ने प्रथम चरण के चुनाव आरंभ होने के दिन ही अपना घोषणा पत्र जारी किया है। कांग्रेस पार्टी ने भी चुनाव से महज दो सप्ताह पहले ही घोषणा पत्र जारी किया। अब सवाल यह उठता है कि क्या इससे जनता और राजनीतिक दल दोनों को घोषणा पत्र में वर्णित नीतियों और कार्यक्रमों पर चर्चा करने का पर्याप्त समय मिलता है। या फि र यह एक रस्म अदायगी मात्र है। इस पूरी कवायद से घोषणा पत्र का महत्व कम हुआ है।

खेती किसानी चुनावी चर्चा का केंद्र बना रहा है। देश की दो प्रमुख पार्टियों कांग्रेस और भाजपा ने घोषणापत्र के जरिए किसानों को लुभाने की कोशिश की है। हालांकि दोनों के घोषणापत्र में मौलिक समानता है। खेती को नवउदारवादी अर्थव्यवस्था से जोड़ कर प्रस्तुत किया जा रहा है। कांग्रेस पार्टी कृषि विकास उत्पादकता और आय पर ध्यान देने की बात करती है। घोषणा पत्र में सरकार दावा करती है कि कृषि की सकल घरेलू उत्पाद २.६ प्रतिशत (बीजेपी के शासन काल में) से बढक़र यूपीए१ में ३.१ प्रतिशत तथा यूपीए २ के शासन काल में ४ प्रतिशत हो गई। लेकिन खेती का हाल किसी से छुपा नहीं है। पिछले १० सालों में ९० लाख लोगों ने खेती छोड़ दी है।  वर्ष २००१ में किसानों की संख्या १२.७३ करोड़ थी, जो कि २०११ में घटकर ११.८७ हो गई। वहीं कृषि मजदूर की संख्या २००१ में १०.६८ करोड़ थी जो कि २०११ में बढक़र १४.४३ करोड़ हो गई।

भारतीय किसानों की दुर्दशा साल दर साल बदतर होती जा रही है। १९९५ से अब तक २ लाख ९० हजार से अधिक किसान आत्महत्या कर चुके हैं। प्रतिदिन २,३५८ किसान खेती छोड़ रहे हैं। किसान के परिवारों की औसत मासिक कृषि आय २,११५ रुपए हंै, जबकि औसत मासिक खर्च २७०० है। लोगों का पेट भरनेवाले अन्नदाता किसान खुद भुखमरी का शिकार हो रहें हैं। देश की जीडीपी में योजनाबद्ध तरीके से कृषि का योगदान निरंतर घट रहा है। १९९०-१९९१ में जब उदारीकरण का दौर प्रारंभ हुआ तब जीडीपी में कृषि का  योगदान ३० प्रतिशत था, जो कि २०१२-२०१३ में गिरकर १३.७ प्रतिशत हो गया है। राष्ट्रीय नमूुना सर्वेक्षण (एनएसएस जुलाई २००५) के अनुसार समुचित निर्वाह, प्रोत्साहन और सम्मान के अभाव में देश का ४० प्रतिशत किसान खेती छोडऩे को तैयार है, बशर्ते, अजीविका का कोई दूसरा साधन उपलब्ध हो।

कांग्रेस पार्टी रिटेल में एफ डीआई की अनुमति के ‘ऐतिहासिक फैसले‘ से किसानों की दशा-दिशा बदलने की उम्मीद करती है। नई प्रौद्योगिकी और नए अनुसंधान पर जोर दिया जा रहा है। घोषणा पत्र में छोटे व सीमांत किसानों तथा कर्ज न लेनेवाले किसानों की फसल बीमा योजना की कवरेज मौजूदा २५ प्रतिशत से बढ़ाकर ५० प्रतिशत करने का वादा किया गया है। छोटे सीमांत और महिला कृषक समूह को ५ लाख रुपए तक का कर्ज उपलब्ध करवाया जाएगा। लेकिन आज भी मात्र २८ प्रतिशत किसानों के पास जमीन की रजिस्ट्री है, और उन्हीं को बैंक  से कर्ज मिलता है। छोटे किसानों, कृषि मजदूरों और बटाईदारों को कर्ज नहीं मिलता। पार्टी का यह दावा है कि १२ वीं पंचवर्षीय योजना के अंत तक भारत में सिंचित भूमि का कुल क्षेत्र १०० करोड़ हेक्टेयर हो जाएगा। इसके लिए सरकार जल प्रबंधन और नए तकनीक का सहारा लेगी। लेकिन सांख्यिकी विभाग के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष २०१०-२०११ तक कु ल सिंचित भूमि ६३.६० करोड़ हेक्टेयर थी। साथ ही सरकार ने परंपरागत जल स्रोतों के पुर्नउत्थान की कोई ठोस घोषणा नहीं की है। हालांकि इससे पहले भी २००९ के घोषणा पत्र में सरकार ने कर्ज माफ ी और सभी छोटे और सीमांत किसानों को न्यूनतम दर पर बैंक कर्ज उपलब्ध कराने का वादा किया था ।

देश में अच्छे दिन लाने का वादा करने वाली भाजपा भी कृषि विकास को उच्च प्राथमिकता देती है।  किसानों की आय और ग्रामीण इलाकों के विकास का वादा करती है। किसानों को लागत का ५० प्रतिशत लाभ सुनिश्चित करने की घोषणा भी की गई है। इस घोषणा पत्र में और भी कई वादे किए गए हैं, लेकिन कुछ पहलुओं की अनदेखी भी हुई है। भूमि सुधार पार्टी की एजेंडा में नहीं है। पार्टी जीन सवंर्धित खाद्यों को वैज्ञानिक जांच के बाद अनुमति देने की घोषणा करती है। जिससे जीएम फ सलों को पिछले दरवाजे से अनुमति मिल जाती है। खेती पर मार्केट और कॉर्पोरेट का कब्जा बढ़ता जा रहा है। खाद, बीज आदि के लिए किसान मार्केट पर निर्भर है और सरकार का मार्केट से नियंत्रणा कम होता जा रहा है। दुनिया की दस बड़ी बीज कंपनियां जैसे मॉन्सेंटो, डयुपांट, सीनगेंटा आदि का दुनिया के दो तिहाई बीज व्यापार पर कब्जा है। खेती को कॉर्पोरेट के बढ़ते प्रभाव से बचाने का कोई प्रयास घोषणा पत्र में नहीं दिख रहा है। खेती में निवेश की बात तो की जाती है पर सरकारी निवेष खासकर कृषि अनुसंधान में हो इसपर कोई चर्चा नहीं है। इसी प्रकार कृषि के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार व्यवस्था पर कोई चर्चा नहीं की गई है।

बहरहाल चुनाव प्रचार बदस्तूर जारी है लेकिन खेती-किसानी कोई मुद्दा नहीं है। यह चुनाव नीतियों और कार्यक्रमों पर आधरित न होकर ‘व्यक्ति केंद्रित‘ हो गया है। व्यक्तियों की महिमा पहले है, नीतियों का बखान पीछे है। इससे नीतियों पर बहस कम और निजी हमले ज्यादा हो रहे है