फिर भी होली मुबारक हो

घर से बाहर निकलने पर पता चलता है कि सड़कों पर होली जैसा माहौल हैबच्चें आते जाते लोगों पर पानी या रंग का गुब्बारा डाल रहे हैबाज़ार में रंग, गुलाल, पिचकारी की दुकान पर भीड़ लगी हैतभी मन बचपन की ओर लौट जाता हैउस समय को याद करने लगते है, जब मैं भी बच्चों के साथ होली खेला करता थामन हर्षित हो जाता हैयाद है, गाँव का वह दृश्य जब लोग टोली बनाकर ढोलक- झाल के साथ होली गाया करते थेपूरा फागुन महीना ही होली के रंग में रंगीन रहता थासामाजिक सौहार्द का यह एक अनूठा नमूना थावैसे इस तरह के दृश्य भले ही यहाँ दिल्ली में देखने को मिले पर आज भी गाँवों में होली का दृश्य कुछ ऐसा ही रहता है

लेकिन, मन अचानक यह पूछता है कि आखिर लोगों का त्योहारों के प्रति इतनी उदासीनता क्यों है? लोगों की रूचि बदल गई या लोग पुराने त्योहारों के प्रति तटस्थ हो गएनए नए फेस्टिबल या डे रिझाने लगा या फिर कुछ औरशायद लोगों की व्यस्तता बढ़ गई या महँगाई की मार पड़ गई या फिर करियर की चिंता सताने लगीजीवन में आगे बढ़ने की चाह में हम इन चीजों को भूलते चले गएकारण चाहे जो भी हो पर इतना तो सच है कि आज आदमी जीने की चाह में रोज़ मरता चला जा रहा हैहम आपसी प्रेम और सौहार्द बनाने वाले इन अवसरों को खोते जा रहे है, जो हमें इन त्योहारों से मिलाता है

वस्तुतः समाज का एक बड़ा तबका तो इन त्योहारों से अछूता हैवह अपने दाल- रोटी की जुगाड़ में इतना थक चूका होता है कि त्योहारों के लिए कोई उर्जा ही शेष नहीं बचती हैजब सारी कसरत रोटी के लिए ही कि जाये तो अन्य चीजों के लिए कोई जगह कहाँ बचती हैएक दूसरा तबका भी है,जो इतना सीमित और केन्द्रित हो चूका है कि इन अवसरों के लिए कोई स्थान रिक्त ही नहीं रखता। जो लोग अपने को बीच का मानते है, वो भी दिनोंदिन बढ़ती महँगाई, सिमटते सामाजिक दायरे और बेहतरी की आस में जीवन के रंगों को खोते चले जा रहें हैपर हमें एक ऐसे समाज की दरकार है जिसमें हर चेहरे पर गुला की लाली हो